शाहजहांपुर के एनआरसी सेंटर में कुपोषित बच्चे अशिंका को सुई लगाती नर्स।
– फोटो : भव्यनरेश
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सरकारी योजनाओं को किस तरह कागजों पर दौड़ाया जा सकता है, कुपोषण से जूझ रहा शाहजहांपुर जिला इसकी मिसाल है। स्थिति कितनी विकराल है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के 2015 में हुए सबसे ताजा सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक 36 हजार से ज्यादा कुपोषित बच्चों में 49.3 फीसदी की लंबाई और 23.6 फीसदी बच्चों का वजन कम है।
यह स्थिति काफी हद तक संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने वाली जननी सुरक्षा योजना की विफलता से जुड़ी हुई है जिसका भयावह पहलू यह है कि इस जिले में 70 फीसदी से ज्यादा कुपोषित बच्चों का प्रसव घरों पर ही हुआ है। पड़ताल में पता चला कि इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज (आईसीडीएस) स्कीम की रिपोर्ट के मुताबिक रेड जोन में शामिल हाई रिस्क श्रेणी के इस जिले में कुपोषितों बच्चों की तादाद कम करने को सरकारी तंत्र ने कोई ठोस पहल नहीं की।
सरकारी योजनाओं की नाकामी यह है कि बच्चों के साथ मांए भी बेहद कमजोर हैं। बाल विवाह और गर्भ धारण के बाद पौष्टिक आहार न मिल पाना दोनों पर भारी पड़ रहा है। पोषण पुनर्वास केंद्र यानी एनआरसी में भर्ती बच्चों में से करीब 80 फीसदी की मांओं की उम्र 20 से 30 के बीच है। ज्यादातर तीन या चार बच्चों की मां हैं।
सोनकली को सरकार नहीं भगवान पर भरोसा
पुवायां तहसील की ग्राम पंचायत लखनापुर के आंगनबाड़ी केंद्र से छह अतिकुपोषित बच्चे संबद्ध हैं। नौ महीने के एक अतिकुपोषित बच्चे की मां सोनकली कहती हैं, ‘बच्चे भगवान की देन हैं और हर बच्चा अपना भाग्य लेकर पैदा होता है। अगर भाग्य में ही कमजोर होना लिखा है तो कोई क्या कर सकता है’। उन्हें जब संस्थागत प्रसव की विशेषताओं की जानकारी दी गई और प्रसूताओं को दी जा रही प्रोत्साहन राशि के बारे में बताया गया तो उन्होंने इसका पता न होने की बात कही। बोलीं, आशा बहनें सिर्फ बच्चों के नाम दर्ज करने पहुंचती हैं।
लखनापुर में रहने वाली साल भर के अतिकुपोषित बच्चे की मां गरिमा ने बताया कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ने सिर्फ आधा किलो चावल और लगभग एक किलो गेहूं दिया। उन्होंने सवाल किया, इस मुट्ठी भर राशन से किसका पेट भरें।
एनआरसी: सात सालों में 15 सौ बच्चों का इलाज एनआरसी पर अप्रैल 2019 से मार्च 2020 तक केंद्र पर 223 बच्चे और अप्रैल 2020 से दिसंबर तक 17 बच्चों के भर्ती होने का रिकॉर्ड है। इस बीच अप्रैल, मई, जून और अगस्त में कोरोना की वजह से एनआरसी खाली रहा। जुलाई और सितंबर में एक-एक, अक्तूबर में चार, नवंबर में दो और दिसंबर में अब तक दस बच्चे भर्ती हुए हैं। इनमें चार का इलाज चल रहा है। एक बच्चा एडीमा से ग्रसित है। बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. एके सिंह के मुताबिक साल 2013 में एनआरसी शुरू हुआ था। अब तक करीब 15 सौ अतिकुपोषित बच्चों का इलाज हो चुका है।
जिला कार्यक्रम अधिकारी ज्योति शाक्य कहती हैं कि निम्न और मध्यम वर्ग परिवारों के बच्चे ही ज्यादातर कुपोषित हैं। ये परिवार अशिक्षा की वजह से कुपोषण का सही अर्थ ही नहीं समझते। ज्यादातर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का तर्क है कि बच्चे और मां के खानपान में कमी बताने पर उनके परिजन को नागवार लगता है। प्रसव के लिए एंबुलेंस बुलाने के बजाय घर पर ही प्रसव कराते हैं। अस्पताल तभी ले जाते हैं जब हालत बिगड़ती है। एनआरसी पर भी ठहरने को तैयार नहीं होते।
बाल विवाह और फिर अस्पताल के चक्कर
एनआरसी पर भर्ती तिलहर के गांव रतौली की रहने वाली पूनम का पांच महीने का बेटा इस कदर कमजोर है कि दूध भी हजम नहीं कर पा रहा। पूनम के मुताबिक 19 दिसंबर को बच्चे का वजन चार किलो था जो इलाज के बाद करीब एक किलो बढ़ा है। पूनम की शादी 17 साल की उम्र में हुई थी। कमजोर होने की वजह से पहले बच्चे की मौत हो गई थी।
बेटा और बेटी दोनों कुपोषित
गांव महमूदपुर की मीरा की तीन महीने की बेटी और डेढ़ साल का बेटा 15 दिसंबर को गंभीर हालत में एनआरसी पर भर्ती हुए। बेटी एडीमा से ग्रसित है। दस दिन इलाज के बाद वजन बढ़ा है मगर दोनों में से कोई अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं है। मीरा ने बताया कि उसका विवाह 16 साल की उम्र में हुआ था। दोनों बच्चों का जन्म घर पर ही हुआ। वह भी अक्सर बीमार रहती हैं।
शाहजहांपुर में कुपोषण
– 36 हजार बच्चे कुपोषित
– 6,312 बच्चे अति कुपोषित
– 2,968 बच्चे अल्प कुपोषित
सरकारी योजनाओं को किस तरह कागजों पर दौड़ाया जा सकता है, कुपोषण से जूझ रहा शाहजहांपुर जिला इसकी मिसाल है। स्थिति कितनी विकराल है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के 2015 में हुए सबसे ताजा सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक 36 हजार से ज्यादा कुपोषित बच्चों में 49.3 फीसदी की लंबाई और 23.6 फीसदी बच्चों का वजन कम है।
यह स्थिति काफी हद तक संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने वाली जननी सुरक्षा योजना की विफलता से जुड़ी हुई है जिसका भयावह पहलू यह है कि इस जिले में 70 फीसदी से ज्यादा कुपोषित बच्चों का प्रसव घरों पर ही हुआ है। पड़ताल में पता चला कि इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज (आईसीडीएस) स्कीम की रिपोर्ट के मुताबिक रेड जोन में शामिल हाई रिस्क श्रेणी के इस जिले में कुपोषितों बच्चों की तादाद कम करने को सरकारी तंत्र ने कोई ठोस पहल नहीं की।
सरकारी योजनाओं की नाकामी यह है कि बच्चों के साथ मांए भी बेहद कमजोर हैं। बाल विवाह और गर्भ धारण के बाद पौष्टिक आहार न मिल पाना दोनों पर भारी पड़ रहा है। पोषण पुनर्वास केंद्र यानी एनआरसी में भर्ती बच्चों में से करीब 80 फीसदी की मांओं की उम्र 20 से 30 के बीच है। ज्यादातर तीन या चार बच्चों की मां हैं।
सोनकली को सरकार नहीं भगवान पर भरोसा
पुवायां तहसील की ग्राम पंचायत लखनापुर के आंगनबाड़ी केंद्र से छह अतिकुपोषित बच्चे संबद्ध हैं। नौ महीने के एक अतिकुपोषित बच्चे की मां सोनकली कहती हैं, ‘बच्चे भगवान की देन हैं और हर बच्चा अपना भाग्य लेकर पैदा होता है। अगर भाग्य में ही कमजोर होना लिखा है तो कोई क्या कर सकता है’। उन्हें जब संस्थागत प्रसव की विशेषताओं की जानकारी दी गई और प्रसूताओं को दी जा रही प्रोत्साहन राशि के बारे में बताया गया तो उन्होंने इसका पता न होने की बात कही। बोलीं, आशा बहनें सिर्फ बच्चों के नाम दर्ज करने पहुंचती हैं।
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मुट्ठीभर अनाज से किसका पेट भरें
लखनापुर में रहने वाली साल भर के अतिकुपोषित बच्चे की मां गरिमा ने बताया कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ने सिर्फ आधा किलो चावल और लगभग एक किलो गेहूं दिया। उन्होंने सवाल किया, इस मुट्ठी भर राशन से किसका पेट भरें।
एनआरसी: सात सालों में 15 सौ बच्चों का इलाज एनआरसी पर अप्रैल 2019 से मार्च 2020 तक केंद्र पर 223 बच्चे और अप्रैल 2020 से दिसंबर तक 17 बच्चों के भर्ती होने का रिकॉर्ड है। इस बीच अप्रैल, मई, जून और अगस्त में कोरोना की वजह से एनआरसी खाली रहा। जुलाई और सितंबर में एक-एक, अक्तूबर में चार, नवंबर में दो और दिसंबर में अब तक दस बच्चे भर्ती हुए हैं। इनमें चार का इलाज चल रहा है। एक बच्चा एडीमा से ग्रसित है। बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. एके सिंह के मुताबिक साल 2013 में एनआरसी शुरू हुआ था। अब तक करीब 15 सौ अतिकुपोषित बच्चों का इलाज हो चुका है।
कुपोषण का मतलब नहीं समझते ज्यादातर लोग
जिला कार्यक्रम अधिकारी ज्योति शाक्य कहती हैं कि निम्न और मध्यम वर्ग परिवारों के बच्चे ही ज्यादातर कुपोषित हैं। ये परिवार अशिक्षा की वजह से कुपोषण का सही अर्थ ही नहीं समझते। ज्यादातर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का तर्क है कि बच्चे और मां के खानपान में कमी बताने पर उनके परिजन को नागवार लगता है। प्रसव के लिए एंबुलेंस बुलाने के बजाय घर पर ही प्रसव कराते हैं। अस्पताल तभी ले जाते हैं जब हालत बिगड़ती है। एनआरसी पर भी ठहरने को तैयार नहीं होते।
बाल विवाह और फिर अस्पताल के चक्कर
एनआरसी पर भर्ती तिलहर के गांव रतौली की रहने वाली पूनम का पांच महीने का बेटा इस कदर कमजोर है कि दूध भी हजम नहीं कर पा रहा। पूनम के मुताबिक 19 दिसंबर को बच्चे का वजन चार किलो था जो इलाज के बाद करीब एक किलो बढ़ा है। पूनम की शादी 17 साल की उम्र में हुई थी। कमजोर होने की वजह से पहले बच्चे की मौत हो गई थी।
बेटा और बेटी दोनों कुपोषित
गांव महमूदपुर की मीरा की तीन महीने की बेटी और डेढ़ साल का बेटा 15 दिसंबर को गंभीर हालत में एनआरसी पर भर्ती हुए। बेटी एडीमा से ग्रसित है। दस दिन इलाज के बाद वजन बढ़ा है मगर दोनों में से कोई अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं है। मीरा ने बताया कि उसका विवाह 16 साल की उम्र में हुआ था। दोनों बच्चों का जन्म घर पर ही हुआ। वह भी अक्सर बीमार रहती हैं।
शाहजहांपुर में कुपोषण
– 36 हजार बच्चे कुपोषित
– 6,312 बच्चे अति कुपोषित
– 2,968 बच्चे अल्प कुपोषित
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