केपी ओलीः छात्र राजनीति से पाया शीर्ष मुकाम, पर पीछा नहीं छोड़ रही सियासी उठापटक

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नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का सियासी सफर छात्र राजनीति से शुरू हुआ था। उन्होंने देश का शीर्ष पद तो पा लिया, लेकिन सियासी उठापटक अब भी जारी है। वह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने, मगर दो साल में ही प्रधानमंत्री से कार्यवाहक पीएम बन गए और अब उन्हें उनकी पार्टी ने ही निकाल दिया है। आइये जानते हैं कैसा रहा ओली का सियासी सफर।
14 साल जेल में रहे
नेपाल में राजशाही का विरोध करने पर उन्हें 14 साल जेल में बिताने पड़े। रिहाई के बाद वाम दल समर्थक रहे। 2014 में वह नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष चुने गए। इसके 1994-95 में वह देश के गृह मंत्री बने। 2006 में अंतरिम सरकार में उप-प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री बने।
2015 में नेपाल का नया संविधान लागू होने पर सुशील कुमार कोइराला को हराकर वह पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन एक साल बाद ही अल्पमत में आने से इस्तीफा दे दिया। 2018 में वह वाम गठबंधन के साझा प्रत्याशी के तौर पर दूसरी बार नेपाल के पीएम बने, लेकिन नेपाल में सियासी अस्थिरता व पार्टी में आंतरिक उठापटक के चलते उन्होंने दिसंबर 2020 में संसद भंग कर अप्रैल-मई 2021 में चुनाव की घोषणा कर दी। उन्हें नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने कार्यवाहक पीएम के तौर पर काम करते रहने को कहा है।
दरअसल, कार्यवाहक पीएम केपी ओली और पूर्व पीएम पुष्प कमल दहल प्रचंड ने 2018 में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनाई थी। पहले प्रचंड की पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल माओवादी था, जबकि ओली की पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल था। विलय के बाद जब इनकी सरकार बनी तो पहले मंत्रिमंडल को लेकर दोनों में तकरार हुई फिर 2020 में प्रचंड ने ओली पर बिना पार्टी की सलाह लिए मनमानी से सरकार चलाने का आरोप लगाया। किसी तरह सुलह हुई, लेकिन यह लंबे समय तक कायम नहीं रह सकी। ओली ने अक्टूबर 2020 में प्रचंड की सहमति के बगैर मंत्रिमंडल में बदलाव किया, जिसने दोनों नेताओं के बीच टकराव को चरम पर पहुंचा दिया।
ओली सरकार ने पिछले साल भारतीय क्षेत्र कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख के अपना होने का दावा करते हुए विवादित नक्शा जारी किया था, जिसका भारत ने कड़े शब्दों ने विरोध जताया था। नेपाल सरकार ने इसके लिए संविधान में संशोधन भी किया। नेपाल के इस कदम के पीछे चीन का हाथ माना जाता है, क्योंकि ओली चीन की जिनपिंग सरकार से ज्यादा प्रभावित हैं।
नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का सियासी सफर छात्र राजनीति से शुरू हुआ था। उन्होंने देश का शीर्ष पद तो पा लिया, लेकिन सियासी उठापटक अब भी जारी है। वह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने, मगर दो साल में ही प्रधानमंत्री से कार्यवाहक पीएम बन गए और अब उन्हें उनकी पार्टी ने ही निकाल दिया है। आइये जानते हैं कैसा रहा ओली का सियासी सफर।
पढ़ने में कमजोर, राजनीति में आगे रहे
14 साल जेल में रहे
नेपाल में राजशाही का विरोध करने पर उन्हें 14 साल जेल में बिताने पड़े। रिहाई के बाद वाम दल समर्थक रहे। 2014 में वह नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष चुने गए। इसके 1994-95 में वह देश के गृह मंत्री बने। 2006 में अंतरिम सरकार में उप-प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री बने।
2015 में पहली बार पीएम बने, एक साल रहे
2015 में नेपाल का नया संविधान लागू होने पर सुशील कुमार कोइराला को हराकर वह पहली बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन एक साल बाद ही अल्पमत में आने से इस्तीफा दे दिया। 2018 में वह वाम गठबंधन के साझा प्रत्याशी के तौर पर दूसरी बार नेपाल के पीएम बने, लेकिन नेपाल में सियासी अस्थिरता व पार्टी में आंतरिक उठापटक के चलते उन्होंने दिसंबर 2020 में संसद भंग कर अप्रैल-मई 2021 में चुनाव की घोषणा कर दी। उन्हें नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने कार्यवाहक पीएम के तौर पर काम करते रहने को कहा है।
प्रचंड से तनातनी है सियासी उठापटक की वजह
दरअसल, कार्यवाहक पीएम केपी ओली और पूर्व पीएम पुष्प कमल दहल प्रचंड ने 2018 में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनाई थी। पहले प्रचंड की पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल माओवादी था, जबकि ओली की पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल था। विलय के बाद जब इनकी सरकार बनी तो पहले मंत्रिमंडल को लेकर दोनों में तकरार हुई फिर 2020 में प्रचंड ने ओली पर बिना पार्टी की सलाह लिए मनमानी से सरकार चलाने का आरोप लगाया। किसी तरह सुलह हुई, लेकिन यह लंबे समय तक कायम नहीं रह सकी। ओली ने अक्टूबर 2020 में प्रचंड की सहमति के बगैर मंत्रिमंडल में बदलाव किया, जिसने दोनों नेताओं के बीच टकराव को चरम पर पहुंचा दिया।
भारत से नक्शा विवाद
ओली सरकार ने पिछले साल भारतीय क्षेत्र कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख के अपना होने का दावा करते हुए विवादित नक्शा जारी किया था, जिसका भारत ने कड़े शब्दों ने विरोध जताया था। नेपाल सरकार ने इसके लिए संविधान में संशोधन भी किया। नेपाल के इस कदम के पीछे चीन का हाथ माना जाता है, क्योंकि ओली चीन की जिनपिंग सरकार से ज्यादा प्रभावित हैं।